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दोस्तों आप यह तो जानते ही है कि विभिन्न एक दिवसीय प्रतियोगी परीक्षाओं के दृष्टिकोण से History of Ancient India एक महत्वपूर्ण विषय हैं। जिससे काफी संख्या में प्रश्न विगत वर्षों में पूछे जाते रहे हैं। इसीलिए आज की हमारी यह पोस्ट History of Ancient India के एक महत्वपूर्ण topic Jain dharm notes से लिया गया है जो कि आपको आने वाले सभी प्रकार के Competitive Exams में बहुत काम आयेंगी ! अतः आप सभी से Request है कि आप इस पोस्ट को अपने Browser के BOOKMARK में Save कर लीजिये, और Check करते रहियेगा ! क्योकिं इस पोस्ट को समय – समय update किया जाता रहेगा तथा नए अध्यायों को जोड़ा जायेगा।🙂 🙂
Jain dharm history in hindi जैन धर्म का इतिहास
Jain dharm notes.जैन शब्द संस्कृत जिन शब्द से मिलकर बना हैं। जिसके शाब्दिक अर्थ हैं। जितेन्द्रिय होना यानि की जिसने अपनी इन्द्रियों को विजयी कर लिया हो।जैन धर्म की स्थापना प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने की थी। लेकिन जैन धर्म का विस्तार करने का श्रेय भगवान महवीर को दिया जाता हैं जोकि जैन धर्म के 24 वें तीर्थकर थे।
24 वें तीर्थंकर : महावीर ( जैन धर्म के वास्तिवक संस्थापक ) |
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जन्म | 540 ई. पू. |
जन्म स्थल | कुंडलग्राम (वैशाली , बिहार) |
पिता | सिद्धार्थ (वज्जि संघ के, कुण्डलग्राम के ज्ञातृक क्षत्रिय कुल के प्रधान थे) |
माता | त्रिशला (लिच्छिवि राजा चेटक की बहन ) |
पत्नी | यशोदा ( कुण्डिय गोत्र के राजा समरवती की पुत्री) |
पुत्री | प्रियदर्शना (अनोज्जा ) |
बचपन का नाम | वर्धमान |
गोत्र | कश्यप /इक्ष्वाकु |
प्रतीक | सिंह |
प्रथम वर्षावास | अस्ति ग्राम |
अंतिम वर्षावास | पावापुरी |
गृह त्याग | 30 वर्ष की आयु में बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर) |
ज्ञान प्राप्ति | 12 वर्ष की साधना के बाद |
ज्ञान प्राप्ति स्थल | ऋजुपालिका नदी के तट पर जुम्भिक ग्राम |
वृक्ष | साल वृक्ष, जिसके नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ |
प्रथम उपदेश | राजगृह, विपुलाचल पहाड़ी पर वाराकर नदी के तट पर |
दामाद | जामालि ( ज्ञान प्राप्ति के 14 वे वर्ष) |
प्रथम शिष्या | चंदना (भिक्षुणी संघ के प्रमुख) |
प्रथम शिष्य | मक्खलि गोशाल (आजीविक सम्प्रदाय के संस्थापक) |
प्रमुख उपाधि | केवलिन (कैवल्य -सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त व्यक्ति), जिन (विजेता ),निर्ग्रन्थ (बंधन रहित), अहर्त (पूज्य) |
जीवन के अंत में निर्वाण | पावापुरी(राजगृह, बिहार) में 72 वर्ष की आयु में 468ई. में सस्तिपाल के यहाँ (यह मल्ल गणराज्य का प्रधान था ) |
जैनधर्म के पंच महाव्रत
- सत्य – सदा सत्य बोलना चाहिए।
- अहिंसा – जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए।
- अस्तेय -चोरी नहीं करनी चाहिए।
- अपरिग्रह –सम्पति अर्जित नहीं करनी चाहिए।
- ब्रह्मचर्य – इन्द्रियों को वश में करना।
- जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों को वर्जित किया गया हैं क्योकिं दोनों में ही जीव हत्या होती हैं।
- इन महाव्रतों में ब्रह्मचर्य महावीर ने जोड़ा हैं, जबकि अन्य सभी चार भगवान पार्श्वनाथ द्वारा जोड़े गए हैं।
- केवल ऋषभदेव या अरिष्टिनेम का ही उल्लेख ऋग्वेद में मिलता हैं।
जैन साहित्य
जैन साहित्यों को आगम कहा जाता हैं।ये निम्न प्रकार होते हैं-
- 12 अंग
- 12 उपांग
- 10 प्रकीर्ण
- 6 छेद सूत्र
- 1 नंदी सूत्र
- 1 अनुप्रयोगद्वार
- जैन धर्म के ग्रंथो को अर्द्धमागधी में लिखा गया हैं।
- कल्पसूत्र को भद्रबाहु ने संस्कृत में लिखा था।
- जैन भिक्षुओं के आचार नियमों के बारे मे आचारांगसूत्र में लिखा गया हैं।
- भगवती सूत्र, में महावीर के जीवन पर प्रकाश डाला गया हैं और इसी में 16 महाजनपदों का विविरण भी किया गया हैं।
- महावीर ने जैन धर्म का प्रचार प्राकृत भाषा में किया।
- महावीर ने धर्मप्रचार के लिए पावापुरी में एक जैन संघ की स्थापना की थी।
जैन धर्म के त्रिरत्न
जैन धर्म के त्रिरत्न या जौहर निम्न प्रकार हैं –
- सम्यक ज्ञान
- सम्यक ध्यान
- सम्यक आचरण
जैन धर्म की मान्यता के अनुसार, इन तीनों रत्नों के माध्यम से ही सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकता हैं।
जैन धर्म में ज्ञान के प्रकार |
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मति | इन्द्रिय जनित ज्ञान |
श्रुति | धार्मिक पुस्तकों से श्रवण ज्ञान |
अवधि | दिव्य ज्ञान |
मन: पर्याय | अन्य व्यक्तयों केमनमस्तिष्कोंकाज्ञान |
कैवल्य | पूर्ण ज्ञान (निर्ग्रन्थ एवं जितेन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान) |
प्रमुख जैन संगीतियाँ (सम्मेलन )
प्रथम जैन संगिति
- स्थान – पाटलिपुत्र
- वर्ष – 300 ई.पू0
- अध्यक्ष – स्थूलभद्र
- परिणाम – बिखरे और लुप्तप्राय ग्रंथो का संकलन, 12 अंकों का प्रणयन, जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। 1. दिगंबर -नग्न रहने वाले (भद्रबाहू के नेतृत्व में), 2. श्वेतांबर -श्वेत वस्त्र धारण करने वाले (स्थूल भद्र के नेतृत्व में)
द्वितीय जैन संगिति
- स्थान –वल्लभी (गुजरात)
- वर्ष –512 ई.
- अध्यक्ष –देवर्धिगण (क्षमाश्रमण)
- परिणाम –बिखरे ग्रंथो का संकलन तथा उनका क्रमानुसार प्रणयन करना।
जैन धर्म को संरक्षित और प्रसारित करने वाले शासक
जैन धर्म का प्रसार वही अधिक हुआ जहाँ पर ब्राह्मण धर्म कमजोर हुआ अर्थात यह उत्तर -पश्चिमी भारत और दक्षिण में अधिक प्रसारित हुआ। कर्नाटक में जैन धर्म का प्रसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया।
- जैन धर्म के मुख्य उपदेशों को संग्रहित करने के लिए पाटलिपुत्र में एक परिषद का गठन किया गया था।
- पांचवी सदी में कर्णाटक में बहुत अधिक संख्या में मठ स्थापित किये गए, जिन्हे वसदि कहा गया।
उत्तर भारत
- हर्यक वंश –बिंबसार, अजातशत्रु और उदायिन
- नन्द शासक – महापद्मनंद और घनांनद
- मौर्य शासक –चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार और सम्प्रति
- अवन्ति के शासक चंडप्रद्योत
- सिंधु -सौवीर के शासक उदायिन
- कलिंग शासक खारवेल
दक्षिण भारत
- कदम्ब वंश – मृगेश वर्मन
- राष्ट्रकूट वंश –अमोघवर्ष
- चालुक्य /सोलंकी वंश- सोमदेव, सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल